समाचार पत्र हों या टी.वी. न्यूज़ चैनल, फ़िल्मी पत्रिकाएं हों या ऍफ़.एम्. रेडिओ, ४ सितारा रेटिंग से कम तो इस फिल्म को शायद ही किसी ने दिया हो. असाधारण टिप्पणियों एवं प्रतिक्रियाओं से सजी इस फिल्म को देखने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ.
ठसा-ठस भरे हुए हॉल में फिल्म देखने के बाद, क्षमा करें, मुझे तो खेद, निराशा, आहत एवं छटपटाहट का ही अनुभव हुआ.
खेद – सर्वप्रथम तो मुझे खेद है अत्यधिक हिंसा के जिन दृश्यों को देखते समय बच्चों ने अपनी आँखें बंद कर ली हों उनके साथ इस फिल्म को ‘U’ प्रमाणपत्र दिया गया और लगभग सभी समीक्षकों ने इसे साफ़-सुथरी पारिवारिक फिल्म घोषित किया. गोधरा काण्ड एवं गुजरात दंगे इस कहानी के मूल में हैं. मुझे खेद है निर्माता के पक्षपात-पूर्ण रवैये पर जिसमें कि एक काण्ड को मात्र एक पंक्ति के समाचार में दिखाया गया हो, और दूसरे काण्ड में विस्तार सहित योजना, क्रूर कार्यान्वयन एवं क्षमा के लिए गिड़गिड़ाते जन-समूह को दिखाया गया. मुझे खेद है कि निर्माता ने गुजरात भूकंप पीड़ितों के लिए लगाए गए शिविरों में धर्म आधारित भेदभाव दिखाया जो कि मुझे तो मात्र उनकी कल्पना प्रतीत होती है. उस समय मैं वहीं गुजरात में था और वास्तविकता में ऐसा कुछ भी अनुभव, मुझे तो नहीं हुआ था. बल्कि उस समय तो इस प्रकार के स्वप्रेरित शिविर लगाना एक सराहनीय कदम अनुभव किया गया था.
निराशा – इस फिल्म की तुलना लगभग सभी समीक्षकों ने ‘३ इडियट्स’ से की है. ये वोह फिल्म थी जिसके लगभग हर संवाद पर हॉल तालियों एवं ठहाकों से गूँज उठता था. पर यहाँ तो हॉल के ठसाठस भरे हुए होने उपरान्त भी मुझे याद नहीं कि किसी भी दृश्य पर हॉल में तालियाँ सुनायी दी हों, कहीं भावनाओं के बहाव में हृदय से एक हूक उठी हो, कहीं किसी का सीटियों से स्वागत हुआ हो, कहीं आँख से कोई आँसू छलका हो, कहीं क्रोध से मुट्ठियाँ भिचीं हों या कभी दर्शक-गण ठहाका लगाने को मजबूर हो गए हों. एकमात्र दृश्य जिसमें होठों पर हलकी सी मुस्कान आयी वो था एक ट्रक के ऊपर लदी हुयी कार में बात करते तीन दोस्त. ये दृश्य भी निर्देशक का हँसी दिलाने का तरीका मात्र था, कहानी से उसका लेना-देना नहीं था. एक बच्चे को क्रिकेट सिखाने के लिए अत्यधिक पागलपन यूं तो वैसे भी वास्तविकता से परे है पर निर्देशक भी इसको न्यायसंगत नहीं बना सके. आज के युग में, तीन २४-२५ साल के लड़के इतने भोले हों की उन्हें समाज की जटिलताओं एवं राजनीति का तनिक भी आभास ना हो, मुझे तो यथार्थ से दूर लगा. इस नीरस वृत्तचित्र सरीखी फिल्म को ४ सितारा दिया जाना मेरी समझ से परे है.
आहत – निश्चय ही निर्माता के इस पक्षपात पूर्ण रवैये से, जिसमें कि केवल एक ही समुदाय को हर बार समाज को विभाजित करने, अशांति फैलाने एवं उपद्रव मचाने के लिए उत्तरदायी ठहराया है, उस समाज की भावनाएं कहीं ना कहीं आहत अवश्य हुयी होंगी. साथ ही उपद्रव के भयभीत कर देने वाले दृश्यों, निर्मम हत्याओं एवं भागते गिड़गिड़ाते दयनीयों को देखकर उस दूसरे समुदाय की भावनाएं भी अवश्य ही भड़की होंगी.
छटपटाहट – छटपटाहट मुझे इस बात की है कि जिस देश में, एक समुदाय के प्रति, इतने पक्षपात पूर्ण दृश्यों के उपरान्त भी यदि कोई फिल्म अत्यधिक शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शित हो सकती है तो फिर उसी देश में, एक दूसरी फिल्म में, दूसरे समुदाय से सम्बंधित एक छोटी सी टिप्पणी भी उपद्रव का कारण क्यों बनती है? यद्यपि प्रतिशोध की भावना से फैलाया गया उपद्रव न्यायोचित नहीं है परन्तु फिर भी इस धर्मनिरपेक्ष देश में क्या कोई फिल्म निर्माता गुजरात के उस दूसरे काण्ड को भी इतने ही विस्तार पूर्वक दिखाने का साहस कर सकते हैं?
मैं जानता हूँ कि बड़े बड़े दिग्गज फिल्म समीक्षकों के सम्मुख मेरी कोई हस्ती नहीं है परन्तु मेरी ‘रेटिंग’ तो इस फिल्म को केवल १.५ सितारा ही है. वो भी इसलिए कि सभी अभिनेताओं ने उत्तम अभिनय किया है जो कि इस फिल्म का एकमात्र दर्शनीय बिंदु है.
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