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अंतर्द्वंद्व

उत्थान
उत्थान
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    क्या मैं मूर्ख हूँ?
    क्योंकि मैं तुम्हारा सामीप्य न पा सका.
    क्योंकि मैं तुम्हारा विश्वास न अर्जित कर सका.
    क्योंकि मैं इस योग्य न बन सका कि तुम मुझे अपने हर्षोल्लास में सम्मिलित कर सको.
    क्योंकि मैं इतना सक्षम नहीं कि तुम मेरे सम्मुख अपना शोक व्यक्त कर सको.
    क्योंकि मैं सदैव आकुल एवं व्याकुल प्रतीत होता हूँ.
    क्योंकि मैं अपने मित्रों में मूर्ख सम्बोधित होता हूँ.
    किन्तु
    सामीप्य पा सकना तो सम्बन्धों पर निर्भर करता है.
    विश्वास तो छल द्वारा भी अर्जित किया जा सकता है.
    मुझे अपने हर्षोल्लास में सम्मिलित न करना तुम्हारी अपनी संकीर्णता हो सकती है.
    मेरे सम्मुख शोक व्यक्त न कर पाना तुम्हारी विवशता भी हो सकती है.
    मेरे आकुल एवं व्याकुल प्रतीत होने का कारण मेरी परिस्थितियां हो सकती हैं.
    मुझे मूर्ख कहने वाले स्वयं ज्ञानी हों ऐसा सुनिश्चित नहीं.
    परन्तु
    ये उत्तर मुझे संतुष्ट क्यों नहीं कर पाते?
    ये मेरे मन का भ्रम दूर करने में असमर्थ क्यों हैं?
    मुझे मूर्ख कहने वाले सभी व्यक्ति अज्ञानी नहीं हो सकते.
    कदाचित, वे मुझे समझने में असमर्थ रहे हों.
    किन्तु
    इस संसार में कोई तो अवश्य होगा जो मुझे समझ सके.
    क्या इसका अर्थ ये है कि मेरी यात्रा अभी पूरी नहीं हुयी?
    क्या इसका अर्थ ये है कि मुझे अभी भी ऐसे साथी की खोज है जो मेरे विचारों से सहमत हो?
    परन्तु
    मैं कब तक इन्ही मार्गों में भटकता रहूँगा?
    क्या है मेरे जीवन का लक्ष्य?
    इस विश्व को अपनी अनन्यता से परिचित कराना.
    सकारात्मक कार्य करते हुए अपनी विशिष्ठता एवं विलक्षणता को सुरक्षित रखना.
    किन्तु
    क्या विलक्षणता का मूर्खता से कोई सम्बन्ध है?
    क्या कभी-कभी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि इन दोनों में गहरा सामंजस्य है?
    सम्भवतः मैं पुनः मूर्खतापूर्ण बातें करने लगा हूँ.
    परन्तु
    क्या कालिदास मूर्ख नहीं था जो “उष्ट्र” शब्द का उच्चारण भी ठीक से नहीं कर पाता था? जो वृक्ष की जिस शाखा पर विराजमान था, उसी को काट रहा था.
    एडिसन भी तो मूर्ख था जिसने अपने ही गृह को अग्नि से प्रज्ज्वलित कर लिया था. जिसने अपनी ही सेविका को छोटे-छोटे जीव-जंतु खिला दिए थे.
    किन्तु
    दोनों ही मूर्ख, विलक्षण थे.
    एक ने विश्व को विलक्षण साहित्य प्रदान किया.
    दुसरे ने विश्व को ऐसा विलक्षण आविष्कार प्रदान किया जिससे रहित जीवन की कल्पना भी असम्भव है.
    और भी मूर्खों के ऐसे कितने ही उदाहरण उपलब्ध हैं.
    सम्भवतः विलक्षणता मूर्खता से ही जन्म लेती है.
    कदाचित ये मूर्ख सम्बोधन, मुझे मेरे मार्ग पर अग्रसित होने का संकेत हो.
    परन्तु
    अब भी ये व्याकुलता कैसी?
    प्रतिविम्ब के मस्तिष्क पर ये विषाद की रेखाएं कैसी?
    आत्मसम्मान मानव जीवन की अमूल्यतम संपत्ति है.
    आत्मसम्मान विहीन जीवन मृत्यु सदृश है.
    अपनी आत्मा से ही प्रश्न करता हूँ.
    क्या मैं मूर्ख हूँ?
    कदापि नहीं.
    तुम मूर्ख नहीं हो.
    क्या तुमने कभी गोधूलि बेला में, कहीं निरभ्र निशीथ के किसी भाग में उस अकेले, आभाहीन, धुंधले, श्वेत शशांक को देखा है? सूर्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व द्वारा अवहेलित, हास्य का पात्र.
    किन्तु अभी कुछ क्षणों पश्चात जब यह भूभाग रजनी की अंक में समा जाएगा, तब वह अपनी शीतल, रुपहली विभास में सम्पूर्ण विश्व का दृष्ट्यावलोकन केंद्र होगा.
    उससे विहीन रात्रि अमावस कहलायेगी.
    तब जलधि-तरंगों में कहाँ होगी वह ज्वार की उच्छलता?
    किन्तु…..
      पंकज जौहरी
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