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तुम करो फैसला…

उत्थान
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    शिल्पा की आँखें नम थीं. “वो नहीं मानी”, बुझे मन से उसने कहा.
    मैंने उसे अपने सीने से लगा लिया. “एक दिन वो अवश्य इस बात को समझेगी भी और मानेगी भी”, मैंने उसका हौसला रखने को कहा. अभी शायद बेटे की परीक्षाओं के कारण उसकी मनोदशा ठीक नहीं है. पर शायद कहीं न कहीं मैं भी जानता था की अब हम एक अच्छा पारिवारिक मित्र खो चुके हैं. और पारिवारिक मित्र से कहीं अधिक वो शिल्पा की पक्की सहेली थी.
    आज मेरे कारण शिल्पा ने अपनी एक पक्की सहेली को खोया था, इसका खेद मुझे मन ही मन खाये जा रहा था. भूल तो मेरी ही थी और मैं इसे स्वीकार भी करता हूँ.
    पर क्या मुझे अपनी सफाई देने का भी अधिकार नहीं?
    क्या मात्र एक भूल के कारण १५ वर्ष की मित्रता समाप्त हो जानी चाहिए?
    क्या मात्र त्रुटि महत्वपूर्ण है, उसके पीछे की नीयत नहीं?
    क्या मात्र आज की एक भूल के कारण सारी पिछली उपलब्धियों को नकारा जा सकता है?
    मेरे दोस्तों, तुम करो इसका फैसला.
    ये सब लगभग तभी प्रारम्भ हुआ था जब से फेसबुक और व्हाट्सऐप ने स्मार्ट-फोन के माध्यम से मेरे घर में प्रवेश किया था.
    यद्यपि आज के बच्चे जन्म लेते ही इन विद्याओं में पारंगत होते हैं, पर मेरे लिए ४०+ की आयु में भी ये सब बहुत मनोरंजक था. फेसबुक अकाउंट खोलने के लिए मैं बहुत उत्सुक और उत्तेजित था. ऑफिस में नए-नए लड़के-लड़कियों को इस पर दिन भर चाट करते देख कर मेरी जिव्हा भी चटखारे लेने को व्याकुल हो उठी थी. पुराने-पुराने मित्रों से मिल जाने की आशंका मन को ऐसी उमंग से भर रही थी मानो वे सब मेरा ही इंतज़ार कर रहे हों. और क्या पता कोई कॉलेज के समय की कन्या ही दिख जाए.
    मेरी सारी उमंगें एवं उत्सुकताएं पहली ही ‘फ्रेंड रिकवेस्ट’ के साथ धराशायी हो गयीं. साले साहब की हंसती हुयी ‘प्रोफाइल पिक’ सदा की भांति मेरा उपहास कर रही थी. धीरे-धीरे ज्ञात हुया कि फेसबुक पर जिन दोस्तों को ढूंढने चलो वो तो मिलते नहीं और न जाने कहाँ-कहाँ के नापसंद चेहरे ना चाहते हुए भी दोस्त बनते चले जाते हैं. फिर भी बहुत सारे मित्र मिले. बहुत सारे सगे सम्बन्धियों के बारे में जानकारियां प्राप्त हुईं. कुल मिलाकर बहुत अच्छा लग रहा था.
    एक और बात जो मैंने अनुभव की वो ये कि अधिकतर पुरुष वर्ग नाम-मात्र के लिए ही फेसबुक पर थे, कोई गतिविधि नहीं थी, जबकि अधिकतर स्त्रियां सक्रिय थीं. संभवतः गृहिणियों को दिन में कुछः विश्राम मिल जाता है, और वैसे भी स्त्रियां स्वाभाविक रूप से अनभिव्यक्त नहीं रह सकतीं.
    मैं अपवाद था. पुरुष होते हुए भी मुझे फेसबुक पर सक्रिय रहना बहुत अच्छा लगता था. ईश्वर ने भी मुझे थोड़ी बहुत रचनात्मकता प्रदान की है. बस उन्हीं में से कभी कोई चित्रकारी, कभी कोई स्वरचित कविता या कहानी या फिर कभी कुछ हास्य-व्यंग्य फेसबुक पर डालना प्रारम्भ कर दिया. ढेरों ‘लाइक्स’ और ‘कॉमेंट्स’ मिलने लगे और मित्र-मंडल बढ़ता चला गया. बहुत अच्छा अनुभव था ये.
    फेसबुक आपके लिए ‘फ्रेंड्स’ ‘सजेस्ट’ भी करती है. उसी तरह से अचानक एक दिन मुझे आभा दिखाई दी. आभा, शिल्पा की पसंदीदा सहेली, जो कि पिछले लगभग १२ वर्षों से संपर्क में नहीं थी. शिल्पा उसे बहुत मिस करती थी. हम लोग प्रायः उसकी बातें कर लेते थे. मैं बहुत आनंदित था कि शिल्पा कितनी प्रसन्न होगी. तुरंत उसे ‘फ्रेंड रिकवेस्ट’ भेज दी और शिल्पा को फोन कर दिया. शिल्पा खुशी से फूली न समाई.
    आभा ‘ऑन-लाइन’ थी. तत्काल ही मेरी ‘रिकवेस्ट’ ‘कन्फर्म’ हो गयी और उसका ‘मैसेज’ भी आ गया;
    “हाय, हाऊ आर यू?
    “आप कैसी हैं? हम सब ठीक हैं. शिल्पा आपको बहुत याद करती है. आप कहाँ हैं? इतने दिन कहाँ रहीं?” मैंने एक ही सांस में अनगिनत प्रश्न-तीर छोड़ दिए.
    “हम सब भी अच्छे हैं, और आजकल सतारा में हैं. आप-लोग तो मुंबई में ही हैं ना?”
    “हाँ, जबसे पिछली बार आपके हाथ की बिरयानी खाई थी, तबसे हम लोग वैसी बिरयानी ट्राई कर रहे हैं. आपको बहुत याद करते हैं.”
    “ऐसा क्या? अब आप लोग सतारा आइये, फिर से बिरयानी खिलाऊँगी.”
    “अवश्य. आप शिल्पा को जरूर फोन कर लीजियेगा. बाय.”
    “बाय-बाय.”
    उसी दिन शिल्पा ने भी अपना फेसबुक अकाउंट खोल लिया था. कहना अतिशयोक्ति न होगी, आभा के लिए.
    आभा बहुत अच्छी चित्रकार भी थी. हम लोग एक दुसरे की रचनाओं को अनिवार्य रूप से ‘लाइक’ करते थे और अच्छे-अच्छे ‘कॉमेंट्स’ भी देते थे. बीच-बीच में शिल्पा के ‘कॉमेंट्स’ भी हमारा प्रोत्साहन करते थे. सिलसिला चल पड़ा था, जीवन जीवंत था.
    यूं तो मैं आभा से बहुत खुला नहीं था पर पत्नी की मित्र होने के नाते रिश्ता साली का बनता था, सो थोड़ी-बहुत छेड़-छाड़ का प्रारम्भ हो जाना स्वाभाविक था, जैसे उसके जन्म-दिन पर उसकी उम्र बहुत कम बताकर उसे लज्जारंजित करना आदि. एक बार उसने एक फूल पकड़े हुए ‘प्रोफाइल पिक’ डाली. मैंने ‘कॉमेंट’ लिखा,
    “फूल नहीं मेरा दिल है.”
    “ऐसा क्या? पर ये तो मुकुल ने दिया है.”
    “”ब्रोकन-हार्ट” (‘स्माइली चित्र).”
    “”स्माइल” “स्माइल” “ग्रिन” “ग्रिन” (स्माइली चित्र).”
    फेसबुक पर ये सब ‘कॉमेंट्स’ ‘पब्लिक’ थे. शिल्पा से कुछ छुपा नहीं था. और हास-परिहास का आनंद भी दोनों पक्षों में समान था.
    समय आगे बढ़ चला था.
    अब समय आ गया है कहानी की तीसरी नायिका से मिलवाने का. नीति, शिल्पा की एक और बहुत पक्की सहेली. शिल्पा की एक भिन्न मित्र-मंडली. आभा के विपरीत, पिछले १६ वर्षों से इनका परिवार सदैव हमारे आस-पास ही रहा. इनसे लगभग हर दुसरे सप्ताह हमारा मिलना-जुलना होता रहा है. इतने वर्षों बाद भी हमारे संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं आया.
    नीति के साथ मैं बहुत खुला हुआ हूँ. शिल्पा और अनय की उपस्थिति में हम दोनों एक दुसरे के साथ खूब हास-परिहास करते हैं, और मैं उसको बहुत छेड़ता हूँ.
    मैं प्रायः उससे कहता, ये दुनिया नीति के नियंत्रण में है और नीति गलती से अनय के नियंत्रण में आ गयी है. और हम सब खूब हँसते.
    मैं तो आपके गृह-नगर के पास ही रहता था, पढ़ाई के दिनों में. काश आप २० वर्ष पहले मिल गए होते. तब शिल्पा कहती, “हर कोई इतना मूर्ख नहीं होता. मिल भी जाती तो आपको घास नहीं डालती.”
    कभी-कभी शिल्पा कहती, “आप मेरी सहेलियों से कैसी छेड़-छाड़ कर लेते हो, उनके पति लोग कभी मेरे साथ ऐसी बातें करते हैं क्या? कहीं ऐसा ना हो कि लोग आपको गलत समझ बैठें.”
    मैं हँस कर कहता, “लोगों की चिंता नहीं है मुझे जब तक तुम मेरे साथ हो. और फिर सब कुछ तुम्हारे सामने ही तो है.”
    नीति में भी रचनात्मक क्षमताएं हैं, वो कवितायें लिखती है. पर फेसबुक पर इतनी सक्रिय नहीं.
    दुनिया आगे बढ़ रही थी. फेसबुक धूमिल हो चला था. उसके साथ-साथ एक नया भूत अपनी जगह बना रहा था, ‘व्हाट्सऐप’. ये व्हाट्सऐप, फेसबुक की तरह ‘पब्लिक’ नहीं है. सब कुछ वन-टु-वन, एकदम व्यक्तिगत, गोपनीय.
    व्यक्तिगत होने के कारण इसके कुछ भिन्न प्रकार के उपयोग हैं. ये गृहणियों के बीच चुटकुले एवं शुभकामनाएं हस्तांतरित करने का प्रमुख साधन है. कुछ विशिष्ट मित्रों के बीच ‘नॉन-वेज’ सामग्री स्थानांतरित करने में भी इसका प्रमुख योगदान है.
    दीपावली की शुभकामनाएं आदान-प्रदान करने के बाद से ही मैं नीति और आभा के साथ व्हाट्सऐप पर जुड़ गया था. ना जाने कब से एक दूसरे को हलके-फुल्के ‘जोक्स’ भेजने का सिलसिला चल निकला था. सभी लगभग १६-१७ वर्षों से विवाहित हैं अतः प्रसंग अधिकतर पति-पत्नी की नोक-झोंक के आस-पास ही रहता था.
    एक दिन शिल्पा ने मुझे बताया, देखो तो व्हाट्सऐप पर कितना अच्छा जोक आया है.
    मैंने कहा, “मुझे पता है.”
    “कैसे?”
    “आभा ने मुझे भी भेजा है.”
    “अच्छा? वो आपको भी भेजती है? और कौन-कौन आपको जोक भेजता है?”
    “मेरे तो अनगिनत मित्र हैं.”
    “मेरी सहेलियों में से कौन-कौन?”
    “आभा और नीति. ये देखो.” मैंने अपना फोन शिल्पा के हाथ में दे दिया.
    शिल्पा आश्चर्यचकित थी.
    मैं उसके विचारों को समझ सकता था. मैंने उसे विश्वास दिलाते हुए कहा, “देखो, मेरे फोन में कोई पासवर्ड नहीं है. तुम जब चाहे, जो चाहे देख सकती हो.”
    शिल्पा निश्चिन्त हो गयी.
    मैं भी निश्चिन्त था. मन में कोई भय नहीं था.
    सब कुछ संतुलित था. उच्च श्रेणी के, स्वच्छता से परिपूर्ण हास्य-व्यंग्य सन्देश. और सब-कुछ शालीनता, सभ्यता, सुसंस्कृति एवं सम्मान की परिसीमाओं में सुरक्षित. जीविकाओं में बंधे इस जीवन में ये गुदगुदाहट समय के गतिवर्धन का कार्य करती है.
    एक वर्ष से भी अधिक समय बीत चुका था जब एक आंधी ने हमें झकझोर कर रख दिया.
    मेरे बहुत सारे विशिष्ट श्रेणी के मित्र भी हैं जिनके बीच प्रायः ‘नॉन-वेज जोक्स’ का आदान-प्रदान चलता रहता है. कभी-कभी इन जोक्स में थोड़ी अश्लीलता का अंश भी विद्यमान होता है. मेरा अनुभव है कि कभी-कभी अत्यंत निम्न कोटि की अश्लीलता भी अत्यंत उच्च कोटि का हास्य उत्पन्न कर जाती है. अश्लीलता प्रायः द्विअर्थी होती है और सही अर्थ समझ में आने पर प्रायः खूब हँसाती है.
    ऐसे ही एक द्विअर्थी सन्देश के सही अर्थ को मैं समझ नहीं सका. शुक्रवार रात के ८ बजे ऑफिस से आने के बाद मैंने अपने व्हाट्सऐप में एक चुटकुला देखा. मुझे ठीक लगा और फटा-फट मैंने उसे बाकी मित्रों में ‘फॉरवर्ड’ कर दिया.
    कुछ समय पश्चात मैंने अपना फोन देखा तो उसमें नीति का मैसेज था, “ये सब क्या बकवास है? ऐसा नहीं चलता.”
    पहले मुझे समझ में कुछ नहीं आया, फिर जब मैंने अपना मैसेज ध्यान से पढ़ा तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. “हाय! मैं ये क्या कर बैठा.” तुच्छतम स्तर का अत्यंत ही अश्लील चुटकुला था वो. मेरे पैर लड़खड़ा उठे, मैं सोफे पर धम्म से बैठ गया. गला शुष्क हो गया था. माथे पर पसीने की बूँदें छलछला उठीं. मस्तिष्क ने कार्य करना बंद कर दिया था. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था.
    कुछ समय पश्चात जब मैं कुछ संभला तो मैंने पहले थोड़ा पानी पिया और तुरंत ही नीति को मैसेज टाइप किया, “मैं अत्यंत शर्मिन्दा हूँ. विश्वास कीजिये, मैं सचमुच इसे समझ नहीं सका था. मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ और आपको तंग करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं था. भविष्य में दोबारा ऐसी गलती ना हो इसलिए मैं आज से ही ये मैसेजिंग सदा के लिए बंद कर रहा हूँ. आपसे पुनः क्षमा-प्रार्थी हूँ. मैं सच-मुच आपका बहुत सम्मान करता हूँ.”
    नीति को ये सन्देश भेजने के तुरंत बाद मुझे याद आया कि मैंने यही सन्देश आभा को भी भेजा है. मेरी साँस जहाँ की तहाँ अटकी हुयी थी. अग्र-सक्रियता दर्शाते हुए मैंने तुरंत ही उल्लिखित सन्देश की एक प्रतिलिपि आभा को भी भेज दी.
    रात के ११ बज चुके थे, पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी.
    शिल्पा बोली, “आज जब से आप ऑफिस से आये हो बहुत चिंतित लग रहे हो. क्या ऑफिस में बहुत काम है?”
    मानो मुझे काटो तो खून नहीं. “हूँ.” मैंने कहा. मैं बार-बार अपना फोन जाँच रहा था कि संभवतः उन दोनों का कुछ उत्तर आया हो.
    “लगता है आज बॉस से फिर झगड़ा कर के आये हो. लाओ मैं सर दबा दूँ. बॉस से कह देना कि यदि उसे आपका कार्य पसंद नहीं तो वो स्वयं कर लिया करे.”
    “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम सो जाओ.”
    यूं तो मैं शिल्पा से कुछ नहीं छुपाता, पर आज ये सब बताने का साहस मैं नहीं कर पा रहा था. शिल्पा के वो शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे, “कहीं ऐसा ना हो कि लोग आपको गलत समझ बैठें.” और शिल्पा स्वयं भी मुझे क्यों सही मानेगी? वो तो मुझे ही गलत समझेगी. उसकी सहेलियों को इतना गंदा मैसेज. मुझे स्वयं से घृणा हो रही थी और ग्लानि भी.
    संभवतः वो ये सोचे कि न जाने कब से ये सब चल रहा होगा.
    एक मन कहता था कि उसे कुछ न बताऊँ, पर फिर सोचता था कि यदि मुझसे पहले नीति या आभा ने उससे शिकायत कर दी तो फिर मेरी नीयत पर ही संदेह किया जाएगा. पर यदि बता भी दूँ तो क्या भरोसा कि मेरी नीयत पर संदेह ना किया जाए.
    यदि बात फ़ैल गयी तो आस-पास के लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?
    और आज-कल जो देश में लहर है उसके अनुसार तो सम्पूर्ण सहानुभूति महिला-वर्ग के साथ है और पुरुष वर्ग को तो सदैव ही संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है.
    कितना कठिन है आज के इस दौर में एक पुरुष को अपना चरित्र प्रमाण-पात्र पाना.
    फिर वैधानिक रूप से भी तो ये अपराध की श्रेणी में आता है.
    रात्रि २ बजे, व्हाट्सऐप से पता चलता था कि नीति को मैसेज पहुँच चुका है पर अब तक उसने देखा नहीं है. पर आभा को अब तक मैसेज पहुँचा क्यों नहीं?
    सुबह ७ बजे, नीति का मैसेज मिला, “मैं समझ सकती हूँ. मैं आपको पिछले १६ वर्षों से जानती हूँ. कभी-कभी ऐसा हो जाता है. मैं भी आपका बहुत सम्मान करती हूँ. आप कृपया मैसेज भेजना जारी रखियेगा, और भविष्य में थोड़ा ध्यान रखिये.”
    मानो दो दिन के प्यासे को आज पानी मिला हो. मैंने लिखा, “मेरी घोर धृष्टता को आपने जिस सहजता से क्षमा कर दिया, उसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ. आपके प्रति मेरा सम्मान और प्रगाढ़ हुआ है. भविष्य में ऐसा न होगा, आप निश्चिन्त रहें.”
    सुबह ९ बजे, आभा को अब तक ये मैसेज पहुँच क्यों नहीं रहा?
    अरे अब तो मुझे उसकी प्रोफाइल पिक भी नहीं दिख रही.
    हे भगवान! ये क्या? उसने तो मुझे ‘ब्लॉक’ कर दिया है. अब मैं उसे कभी भी मैसेज भेज नहीं पाऊँगा.
    बहुत दुर्बल अनुभव कर रहा था मैं. मन में एक अज्ञात सी तीव्र छटपटाहट थी. कम से कम मुझसे पूछा तो होता. मुझे सफाई का एक मौक़ा तो दिया होता.
    क्या सोचती है वो मेरे बारे में? क्या मैं उसी प्रकार का एक घटिया पुरुष हूँ जिनके बारे में रोज समाचार-पत्रों में छपता है?
    पिछले लगभग २ वर्षों से निरंतर मेरे संपर्क में रहने के पश्चात भी मेरे बारे में ऐसे विचार? क्या मैंने इतनी भी विश्वसनीयता अर्जित नहीं की?
    मन कुछ कहने को तड़पता था पर उसे फोन करने में हिचकिचाहट थी.
    कदाचित वो अपने विचार बदल ले और मुझे ‘ब्लॉक्ड’ की श्रेणी से हटा दे. इसी उहापोह में बार-बार फोन देखते हुए दिन बीत गया.
    शनिवार रात्रि ११ बजे, शिल्पा ने कहा, “देख रही हूँ बहुत व्याकुल हो. और ये बार-बार फोन क्या देख रहे हो? किसी लड़की का मैसेज आने वाला है क्या? क्यों? किस लड़की के मैसेज का इंतज़ार है?
    परिहास स्वरुप कहे गए शिल्पा के इन शब्दों ने मेरा बाँध तोड़ दिया.
    मैंने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया और परिणाम की चिंता किये बिना, सर झुकाकर सम्पूर्ण घटना, प्रारम्भ से अंत तक, उसे सुना दी.
    “बस इतनी सी बात? इसमें तो आपने कुछ भी गलत नहीं किया. ये तो धोखे से हो गया. मुझे विश्वास है आप पर.”
    मैं अवाक था. कितनी सहजता से उसने मेरा विश्वास कर लिया था.
    मैं आज उसके सामने अपने आप को बहुत छोटा अनुभव कर रहा था. कितनी सरल किन्तु कितनी महान? जी चाहता था सीना खोल कर आज उसे अपने अंदर छुपा लूँ.
    “मैं आभा से बात कर लूंगी. मैं आपकी ओर से उससे क्षमा मांग लूंगी. मेरी तो सहेली है. दो मिनट में मान जाएगी. आप बिलकुल चिंता मत करो. और हाँ मैं नीति से भी बात कर लूँगी. कहीं वो ये न सोचे कि ये सब आप ने मुझसे छुपाकर किया है.”
    शिल्पा ने तुरंत आभा को मैसेज किया और कहा कि वो कल उससे इस बारे में बात करेगी.
    रविवार प्रातः शिल्पा ने आभा को फोन किया. पर उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत ठंडी थी. उसने कहा कि ये सब उसे बिलकुल पसंद नहीं है. कहने को तो उसने कह दिया कि कोई बात नहीं पर शिल्पा से बात करने में उसने कोई उत्साह नहीं दिखाया.
    कहीं न कहीं उसने ये रिश्ता अपनी ओर से समाप्त कर लिया था.
    शिल्पा की आँखें नम थीं. “वो नहीं मानी”, बुझे मन से उसने कहा.
    मैंने उसे अपने सीने से लगा लिया. “एक दिन वो अवश्य इस बात को समझेगी भी और मानेगी भी”, मैंने उसका हौसला रखने को कहा. अभी शायद बेटे की परीक्षाओं के कारण उसकी मनोदशा ठीक नहीं है. पर शायद कहीं न कहीं मैं भी जानता था की अब हम एक अच्छा पारिवारिक मित्र खो चुके हैं. और पारिवारिक मित्र से कहीं अधिक वो शिल्पा की पक्की सहेली थी.
    आज मेरे कारण शिल्पा ने अपनी एक पक्की सहेली को खोया था, इसका खेद मुझे मन ही मन खाये जा रहा था. भूल तो मेरी ही थी और मैं इसे स्वीकार भी करता हूँ.
    पर क्या मुझे अपनी सफाई देने का भी अधिकार नहीं?
    क्या मात्र एक भूल के कारण १५ वर्ष की मित्रता समाप्त हो जानी चाहिए?
    क्या मात्र त्रुटि महत्वपूर्ण है, उसके पीछे की नीयत नहीं?
    क्या मात्र आज की एक भूल के कारण सारी पिछली उपलब्धियों को नकारा जा सकता है?
    मेरे दोस्तों, तुम करो इसका फैसला…
      पंकज जौहरी.

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