मेरे विचार से भारतीय सिविल सेवाओं में हिन्दी एवं अंग्रेज़ी दोनों को समान महत्व देना चाहिये.
ये परीक्षाएं पूरे देश के लिये होती हैं. किसी एक राज्य या क्षेत्र के लिये नहीं. साथ ही इन प्रतियोगियों से आशा की जाती है कि वे जहाँ भी नियुक्ति पायेंगे वहाँ की समस्याओं को सम्पूर्ण देश के दृष्टिकोण से समझेंगे एवं न्यायपूर्ण समाधान करेंगे. ऐसा करने के लिये उन्हें हिन्दी एवं अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं की जानकारी होना अत्यावश्यक है क्योंकि उनकी नियुक्ति देश के किसी भी भाग में हो सकती है. केवल अपनी ही क्षेत्रीय भाषा की जानकारी उन्हें कठिनाई में डाल सकती है. यदि मराठी माध्यम से परीक्षा पास करने के पश्चात प्रतियोगी की नियुक्ति तमिलनाडु में होती है, तो उनको प्रशासन में अत्यधिक कठिनाई होगी. ऐसे में अंग्रेज़ी एकमात्र ऐसी भाषा है जो सहायक होगी.
ऐसा तर्क देने वाले सभी ‘अंग्रेज़ी में सोचने वाले’ हों, ऐसा आवश्यक नहीं. मैं स्वयं भी हिन्दी माध्यम से पढ़ा हूँ. अंग्रेज़ी की जगह हिन्दी लागू करने से समस्या हल नहीं होगी क्योंकि माँग सिर्फ हिन्दी की नहीं वरन सभी प्रमुख प्रादेशिक भाषाओं की है. कुछ लोग, अज्ञानता वश या प्रसिद्धि की अभिलाषा वश, इसे केवल हिन्दी विरुद्ध अँग्रेज़ी का विषय बताकर इसे हिन्दी के अपमान से जोड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं. कुछ लोग इसे अँग्रेज़ी दासता की संस्कृति बताते हैं. इसमें भावनाओं को भड़काने के अतिरिक्त कुछ औचित्य नहीं है. एक और तथ्य भी जान लेना आवश्यक है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है (यद्यपि कुछ लोग ऐसा मानते हैं, पर यह सच नहीं है).
हमें ये समझना चाहिए कि ये किसी भाषा के स्वामित्व या दमन का नहीं वरन देश के प्रशासन एवं छवि का विषय है. और फिर अँग्रेज़ी से इतनी घृणा क्यों. आज भारतीय प्रतिभा संपूर्ण विश्व में अपना लोहा आसानी से मनवा पा रही है तो इसमें इस भाषा का बहुत बड़ा योगदान है. आज अमेरिका में जब भारतीय नासा मिशन पर जाते हैं या फिर किसी बड़ी मल्टी-नेशनल कंपनी के सी ई ओ बनाए जाते हैं तो हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. कल्पना कीजिए कि क्या ये इतनी बड़ी मात्रा में संभव था यदि वे केवल हिन्दी या मराठी या फिर तमिल ही जानते होते.
भारतीयों को विदेश में इतनी बड़ी संख्या में नौकरी मिलना इसीलिए संभव है की वो अँग्रेज़ी समझते हैं. इसी विशेषता के चलते आज विदेशी आजीविका में पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका जैसे देश हमसे बहुत पीछे हैं. और इसी आवश्यकता को समझते हुए अब चीन भी अपने नागरिकों को अँग्रेज़ी सीखने के लिए प्रोत्साहित कर रहा.
कुछ लोग भावावेश में आकर संपूर्ण देश में हिन्दी को लागू किए जाने की भी वकालत कर रहे हैं. हमें समझना चाहिए कि भाषा, चाहे वो हिन्दी हो या अंग्रेज़ी, किसी के ऊपर कडाई से थोपना ना तो न्याय-संगत है और ना ही भारत जैसे बहुभाषी देश में संभव. अधिकतर विदेशों में एक ही भाषा होती है जो उनकी राष्ट्रभाषा होती है. भारत में स्थिति एकदम भिन्न है. यहाँ 18 भाषाएं हैं जिनमें से एक को भी राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है.
सिविल परीक्षाओं में, 400 अंक की परीक्षा में केवल 20 अंक की अंग्रेज़ी होती है वो भी दसवीं कक्षा के स्तर की. इतनी भी अंग्रेज़ी ना जानने के पश्चात भी देश के प्रशासन को संभालने के स्वप्न देखना तर्क-संगत नहीं. और सीसेट लागू होने के ३ वर्ष पश्चात इतना घोर विरोध स्वाभाविक भी नहीं लगता. यदि बात मात्र अनुवाद की है तो ये हर सरकार को स्वीकार्य ही होगी. और इसे सुलझाने में अधिक समय नहीं लगेगा. निश्चित रूप से ही इस आन्दोलन के पीछे राजनैतिक दाँव-पेंच की बिसात बिछी हुई है.
सरकार को अवश्य ही इस मामले में काफी कठिनाई का सामना करना होगा. देश की विविधता एवं जटिलता को समझते हुये सरकार को कड़ा कदम उठाना चाहिये एवं हिन्दी एवं अंग्रेज़ी दोनों को अनिवार्य रखना चाहिये.
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